(गीता-41) जा, तुझे प्रेम हो जाए || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2024)

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वीडियो जानकारी: 16.03.24, गीता समागम, ग्रेटर नॉएडा

प्रसंग:
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योSभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।

कर्माणि (सब कर्म) मां (मुझे) न लिम्पन्ति (लिप्त नहीं करते) कर्मफले (कर्म के फल में) न मे स्पृहा (मेरी कोई आकांक्षा नहीं है) इति (ऐसा) यः (जो व्यक्ति) माम् (मुझे) अभिजानाति (जानता है) सः (वह) कर्मभिः (कर्मों के द्वारा) न बध्यते (बद्ध नहीं होता) ॥

जितने भी कर्म हैं मुझे लिप्त नहीं करते। कर्मफल की मेरी कोई इच्छा नहीं है, जो व्यक्ति मुझे ऐसा जानता है, वह भी कर्मों में बद्ध नहीं होता।

नादान एक कहने लगा
तन लहूलुहान किसके लिए
आंख मार सीटी बजाई
सब रक्तबिंदु मुस्का दिए

~ बचने का एक ही तरीका है , जो कील होती है बीच में, जा कर उससे लग जाओ
~ एक चक्की से निकलोगे, तो किसी दूसरी चक्की में फस जाओगे
~ आप अगर पिस रहे हो, तो जिम्मेदारी और चुनाव आपका है
~ जो कील से जा कर लग गया, वो जीत ही गया है
~ किली से लगे रहने को निष्काम कर्म कहते है
~ शरीर जितना आपकी चेतना पर भारी पड़ेगा , उतना आप केंद्र से दूर भागोगे
~ अगर चाहते हो, की केंद्र से बिलकुल ही न छिटको, तो केंद्र पर ही आ जाओ
~ मैंने केंद्र को पकड़ लिया है, अब क्या होने जा रहा है? मुझे जानने से कोई मतलब नही
~ कामना में डूबना लिप्तता का प्रमाण नहीं है ,और काम में डूबना निर्लिप्तता का भी प्रमाण नही है I
~ लिप्तता का प्रमाण कर्मफल की सघनता नहीं होती , लिप्तता का प्रमाण कर्मफल की आशा होती है I
~ मज़ा खेलने में है। क्यों पैदा हुए हैं हम? खेलने के लिए। सही खेल पकड़ो और खेल जाओ। सजाने और बचाने के लिए नहीं पैदा हुए हो।
~ नष्ट तो होना ही है। वो करो जो करना है।

संगीत: मिलिंद दाते
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